ख का पाठ मंच पर वह करती रसानुभूति में खलल पड़ता. साथ ही पटकथा में विस्तार का अभाव दिखा.
कभी-कभी किसी कलाकार या रचनाकार के व्यक्तित्व पर उनकी कोई एक कृति इतनी हावी हो जाती है कि सारा मूल्यांकन उसी के इर्द-गिर्द सिमट कर रह जाता है. मशहूर अभिनेता असरानी के साथ यही हुआ. जयपुर में जन्मे असरानी ने अपने पचास साल के करियर में 350 से ज्यादा फिल्में की और विभिन्न तरह के किरदार निभाए पर शोले के ‘जेलर’ का किरदार उनसे जीवनपर्यंत चिपका रहा. वे आम लोगों की निगाह में ‘अंग्रेजों के जमाने के जेलर’ रहे. पर क्या उसी दौर में बनी फिल्में मसलन, अभिमान, चुपके-चुपके, छोटी सी बात, बावर्ची, नमक हराम आदि में उनके किरदारों को भुलाया जा सकता है?
उनके निधन के बाद भी मुख्यधारा और सोशल मीडिया में शोले फिल्म की यही क्लिप वायरल रही. पिछले दिनों शोले फिल्म के पचास साल पूरे होने पर जब उन्होंने मीडिया से बातचीत की तो उन्होंने इस बात की रेखांकित किया वे पुणे फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) के एक प्रशिक्षित अभिनेता रहे. जयपुर से स्नातक की परीक्षा पास कर उन्होंने पिछली सदी के साठ के शुरुआत वर्ष में एक्टिंग का प्रशिक्षण लिया था. इससे पहले से वे ऑल इंडिया रेडियो में बतौर वॉइस आर्टिस्ट से रूप से जुड़े थे.
बीबीसी से पिछले दिनों हुई बातचीत में उन्होंने कहा था कि “फ़िल्म इंस्टीट्यूट पहुंचने के बाद पता चला कि एक्टिंग के पीछे मेथड होते हैं. ये प्रोफ़ेशन किसी साइंस की तरह है. आपको लैब में जाना पड़ेगा, एक्सपेरिमेंट्स करने पड़ेंगे." मशहूर निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी साथ उनकी जोड़ी चर्चित रही और उन्होंने से उन्हें एक्टिंग में प्रशिक्षण लेने की सलाह दी थी. मुखर्जी की मध्यमार्गी फिल्मों ने असरानी को चरित्र अभिनेता के रूप में उभरने का मौका दिया. मध्यवर्ग को संबोधित करती ये फिल्में पचास वर्ष बाद भी विभिन्न उम्र से दर्शकों का मनोरंजन करती है.
उन्होंने कहा था कि उन्हें समझ आया कि एक्टिंग में आउटर मेक-अप के अलावा इनर मेक-अप भी बहुत ज़रूरी है.
असरानी हास्य अभिनेता के रूप में उभरे और अपनी छोटी-छोटी भूमिकाओं में जान डाल दी. यहाँ पर बावर्ची फिल्म में बाबू के उनके किरदार को याद करना रोचक है. वह संगीत प्रेमी है हिंदी फिल्मों में संगीत देना चाहता है. वह विदेशी संगीतकारों के खजाने को सुनता रहता है ताकि उसे प्रेऱणा मिलती रहे! यह उस दौर के नकलची फिल्म संगीतकारों पर एक टिप्पणी भी है.
उनकी कॉमिक टाइमिंग जबरदस्त थी. उनके हास्य-बोध में फूहड़ता नहीं दिखती बल्कि एक गहरे मानवीय दृष्टि से यह संचालित रही. ‘आज की ताज़ा खबर' के लिए उन्हें फिल्मफेयर का बेस्ट कॉमेडियन अवॉर्ड था मिला था. सहजता उनकी अदाकारी का हिस्सा रही.एक कुशल अभिनेता के साथ ही उन्होंने कुछ हिंदी और गुजराती फिल्मों का निर्देशन भी किया था.
जयपुर से शुरू हुई उनकी जीवन यात्रा मुंबई जाकर खत्म हुई, पर इस यात्रा में उन्होंने जो किरदार निभाए वह लोगों की यादों का हिस्सा बन गए. आज जब समाज और राजनीति में हास्यबोध कम हो रहा है, उनकी जरूरत ज्यादा महसूस की जा रही है. उनका हास्य सिर्फ हंसाने के लिए नहीं था. गहरे जा वह व्यंग्य की शक्ल अख्तियार कर लेता था जो हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति पर एक टिप्पणी होती थी.
मलयालम सिनेमा के चर्चित फिल्म निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन के बाद मोहनलाल को
सिनेमा में योगदान के लिए प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया
गया है.
अरुंधती राय ने अपनी किताब ‘मदर मेरी कम्स टू मी’ में सत्तर के दशक में तमिल और
मलयालम फिल्मों का जिक्र करते हुए एक जगह लिखा है जहाँ तमिल फिल्में मायावी दुनिया
की तरफ ले जाती थी, वहीं मलयालम फिल्मों का भाव बोध
यथार्थ से जुड़ा होता था.
मोहनलाल की विशेषता है कि वे 'समांतर’ और ‘मुख्यधारा’ के बीच कुशलता से
आवाजाही करते रहे हैं, उनकी स्वीकृति भी दोनों जगह रही है. मोहनलाल की सिनेमाई यात्रा 1980 में आई फिल्म ‘मंजिल विरिंज पूक्कल’ से शुरू हुई जहां
वे विलेन के रूप में नजर आए. जब मैंने मलायलम के चर्चित युवा फिल्मकार जियो बेबी
से बात की तो उनका कहना था, ‘यह मेरे लिए
सम्मान की बात है कि मैं मोहनलाल के अभिनय करियर के दौरान जीवित हूँ. उनके कुछ अभिनय, उनकी हंसी, और सिनेमा से
बाहर की गई कुछ बातें—इन सबने मुझे एक निर्देशक और इंसान के रूप में गहराई से
प्रभावित किया है. मोहनलाल एक
चमत्कार हैं—ऐसा चमत्कार जो कभी-कभी ही होता है.’
पिछले चार दशक से वे मलयालम सिनेमा का अभिन्न हिस्सा रहे हैं और तीन सौ से
ज्यादा फिल्मों में उन्होंने अभिनय किया है. मोहनलाल की तुलना मलयालम फिल्मों के
ही सफल अभिनेता ममूटी से की जा सकती है जिनकी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफल रही हैं
और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित भी हुई.
राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फिल्म ‘किरिदम’ (1989) में एक सामान्य जिंदगी जी रहे युवा के किरदार को
उन्होंने निभाया है, जिसकी ख्वाहिश सब इंस्पेक्टर बनने की है पर वह सामाजिक कुचक्र
में फंसता चला जाता है जहाँ हिंसा का साम्राज्य है. मोहनलाल ने यथार्थपरक शैली में
बिना किसी मेलोड्रामा के खूबसूरती से इस ट्रैजिक किरदार को अंगीकार किया है. इसी तरह शाजी करुण की पुरस्कृत फिल्म वानप्रस्थम (1999) में एक तिस्कृत बालक और पिता के रूप में मोहनलाल (कुंजिकुट्टन) ने जिस सहजता और
मार्मिकता से किरदार को निभाया है वह सबके बस की बात नहीं थी. एक कलाकार की
त्रासदी हमें मंथती रहती है.
यह फिल्म कथकली के एक कलाकार के बहाने आजाद भारत में कलाकारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, सामाजिक (अ)स्वीकृति, तथाकथित निम्न जाति और उच्च जाति के बीच प्रेम, यथार्थ और मिथक के सवालों को घेरे में लेती है.
सिनेमा के साथ ही उन्होंने रंगमंच पर भी अपनी प्रतिभा के जादू से लोगों को सम्मोहित किया है. वर्ष 2001 में दिल्ली में हुए कर्णभरम (के एन पणिक्कर) नाटक की चर्चा लोग आज भी करते हैं. पिछले दिनों रोमांटिक कॉमेडी ‘हृदयपूरवम’ में वे नज़र आए. जबकि ‘इरुवर’, ‘कालापानी’, दृश्यम जैसी फिल्मों ने उन्हें अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित किया. मोहनलाल एक संपूर्ण अभिनेता हैं, जिनके अभिनय के कई रंग रहे हैं. करुण, हास्य, रौद्र सब तरह के भाव इसमें समाहित हैं. मलयालम के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में भी उन्होंने अभिनय किया है, पर यह हिंदी सिनेमा का दुर्भाग्य है कि उनकी प्रतिभा का वह समुचित इस्तेमाल अभी तक नहीं कर पाया है.